पत्र में नवाब ने यह भी लिखा था कि दिल्ली से अब्दाली की सेना मेरे विरुद्ध आ रही है। यदि तुम मेरी मदद अपनी सेना से करोगे, तो मैं तुम्हें एक लाख रुपया दूंँगा।
अव फ्रांसीसी दूत को वापस भेजकर वाट्सन साहब ने लिखा--- "यदि आप हमें फ्रांसीसियों को नाश करने की आज्ञा दें,तो हम आपकी सहायता अपनी सेना से कर सकते हैं।"
इस बार सिराजुद्दौला घोर विपत्ति में पड़ गया। दिल्ली की फौज बड़े जोरों से बढ़ रही थी। उधर अंग्रेज फ्रान्सीसियों के नाश की तैयारियां कर रहे थे। नवाब पदाश्रित फ्रान्सीसियों का सर्वनाश करवाकर अंग्रेजों की सहायता मोल ले-या स्वयं संकट में पड़े।
वाट्सन का ख्याल था कि नवाब के सामने धर्म-अधर्म कोई वस्तु नहीं। अपने मतलब के लिए वह अंग्रेजों को राजी करेगा ही। परन्तु नवाब ने वाट्सन को कुछ जवाब न देकर स्वयं सैन्य-संग्रह करने को तैयारियां की। उधर अंग्रेजों की कुछ नई पल्टन बम्बई और मद्रास से आ गई। सब विचारों को ताक पर रखकर अंग्रेजों ने फ्रान्सीसियों से युद्ध की ठान ली, और नवाब को संकटापन्न देख, वाट्सन ने नवाब को लिख भेजा—
"अब साफ-साफ कहने का समय आ गया है। शान्ति की रक्षा यदि आपको अभीष्ट है, तो आज से दस दिन के भीतर-भीतर हमारा सब पावना रुपया हर्जाना का चुका दीजिये, वरना अनेक दुर्घटनाएं उपस्थित होंगी। हमारी बाकी फौज कलकत्ते पहुँचने वाली है,जरूरत पड़ने पर और भी जहाज सेना लेकर आवेगे,और हम ऐसी युद्ध की आग भड़कावेंगे जो तुम किसी तरह भी न बुझा सकोगे।"
नवाब ने इस उद्धृ त पत्र का भी नर्म जवाब लिखकर भेज दिया— "सन्धि के नियमानुसार मैं हर्जाना भेजता हूँ। मगर तुम मेरे राज्य में उत्पात मत मचाना। फ्रान्सीसियों की रक्षा करना मेरा धर्म है। तुम भी ऐसा ही करते, यदि कोई शत्रु भी तुम्हारी शरण आता। हाँ, यदि वे शरारत करें, तो मैं उनका समर्थन न करूंगा।"
अंग्रेजों ने समझ लिया, नवाब की सहायता या आज्ञा मिलना सम्भव नहीं है। उन्होंने जल-मार्ग से वाट्सन की कमान में और स्थलमार्ग से
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