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पृष्ठ:आग और धुआं.djvu/६५

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ही वसूल करती थी और बुन्देलखण्ड तथा दक्षिण का कर तुकाजी वसूल करता था। फौजी और दीवानी खर्च निकालकर सारा धन सार्वजनिक खजाने में चला जाता था। अपने खर्च के लिए चार लाख रुपये सलाना की जागीर पृथक् रखी थी।

अहिल्याबाई ने दूत पूना, हैदराबाद, श्रीरंगपत्तनन, नागपुर, लखनऊ और कलकत्ता में थे। अहिल्याबाई के जितने सामन्त-राजा थे, सबके यहाँ उसके दूत रहा करते थे।

महाराष्ट्र-स्त्रियों में पर्दे की प्रथा कभी नहीं रही, इसलिए अहिल्याबाई स्वयं रोज खुले दरबार में बैठकर दरबार की कार्यवाही संचालन करती थी। अहिल्याबाई के शासन का पहला सिद्धान्त था कि प्रजा से हलका लगान लिया जाय। किसान और गरीबों पर उसकी बड़ी कृपा रहती थी। उसने प्रजा के न्याय के लिए अदालत और पंचायतें खोल रखी थीं, लेकिन फिर भी वह स्वयं उनकी प्रत्येक शिकायत सुना करती थी। प्रजा के हर मनुष्य की पहुँच उस तक थी।

महारानी अहिल्याबाई अत्यन्त परिश्रमशील थी। राज्य के कार्यों से अवकाश पाकर वह अपना सारा समय भक्ति और परोपकार में लगाती थी। उसके प्रत्येक काम पर धार्मिकता की गहरी छाप रहती थी। वह बहुधा कहा करती थी कि अपने शासन के एक-एक काम के लिए मुझे परमात्मा के सामने जवाब देना होगा।

जब उसके मन्त्री शत्रु पर किसी प्रकार की सख्ती करने की सलाह देते थे, तो अहिल्याबाई कहती-हम उस सर्व-शक्तिमान् के रचे हुए पदार्थों को नष्ट न करें।

महारानी अहिल्याबाई नित्य ब्रह्ममुहूर्त में उठा करती थी। नित्य कर्म से निवृत्त होने के उपरान्त वह ईश्वर की उपासना करती थी। फिर कुछ देर तक धार्मिक ग्रन्थों का पाठ सुनती थी। इसके बाद अपने हाथों से निर्धनों को दान देती और ब्राह्मणों को भोजन कराकर तब स्वयं भोजन करती थी। वह सर्वथा निरामिष-भोजी थी। भोजन के उपरान्त वह फिर ईश्वर-प्रार्थना करती थी। फिर थोड़ी देर के लिए विश्राम करती थी। इसके बाद उठकर कपड़े पहनकर मध्याह्न दो बजे दरबार में पहुँच जाती थी। दरबार में वह

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