आठ
सत्रहवीं शताब्दी के मध्यकाल में इंगलैंड ने अपने राजा चार्ल्स प्रथम का सिर कुल्हाड़े से काट डाला। उस समय वहाँ रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट सम्प्रदायों में झगड़े बढ़े हुए थे। राजसत्ता सुदृढ़ नहीं थी। ईसाई सम्प्रदाय दो भागों में विभक्त था। एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय से बैर रखता था, इसी कारण चार्ल्स प्रथम को अपना सिर कटाना पड़ा। १६२५ ई० में जेम्स प्रथम की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र चार्ल्स प्रथम के नाम से इंगलैंड के सिंहासन पर बैठा। उस समय इंगलैंड की राजनैतिक अवस्था प्रोटेस्टेन्ट और रोमन कैथोलिकों के झगड़ों के कारण अत्यन्त डांवाडोल हो रही थी। चार्ल्स स्वयं अनुभवहीन था, इस पर उसे मन्त्रि-मण्डल भी उदण्ड तथा स्वेच्छाचारी मिला। परिणाम यह हुआ कि प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार होने लगे। लोगों में क्रान्ति की लहर फैलने लगी। चार्ल्स ने क्रान्ति को निर्दयतापूर्वक कुचलना चाहा, परन्तु कृतकार्य न हुआ, उलटे प्रजा कुचले हुए सर्प की भाँति उसे नष्ट करने पर उतारू हो गई। राज्य-क्रान्ति हुई। पार्लियामेण्ट के नेता कामवेल ने जैसे-तैसे शान्ति स्थापित की, परन्तु चार्ल्स के प्रति उनके घृणा के भाव कम न हुए। सेनाओं का क्रोध इतना बढ़ गया कि वे चार्ल्स के सब साथियों को मार डालने पर भी तृप्त न हुईं। सब लोग चार्ल्स के लहू के प्यासे बन गये तथा उस पर अभियोग चलाने का आयोजन करने लगे। पार्लियामेण्ट के अधिकांश सदस्यों ने इसका विरोध किया, परन्तु कर्नल प्राइड ने तलवार के बल पर से सब विरोधियों को बाहर निकाल दिया तथा बचे हुए सभासदों से चार्ल्स पर अभियोग चलाने का बिल पास करवा दिया। बाद में, चिढ़ाने के लिए, इस बची हुई पार्लियामेण्ट का नाम रम्प रख दिया गया। बिल पास हो गया, परन्तु हाईकोर्ट के अनेक विचारकों ने इस कार्य में भाग लेने की अनिच्छा प्रकट की। इतने पर भी १५० सदस्यों की एक विचार-सभा बनाई गई तथा जॉन ब्राडशा को उसका सभापति नियुक्त किया गया।
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