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आख्यान ]
१०७
सावित्री

यम ने कहा---सावित्री! लौट जाओ; घर जाकर मरे हुए स्वामी का (अन्त्येष्टि, श्राद्ध आदि) क्रिया-कर्म करो।

सावित्री ने कहा---देव! मैं तो बिना घर-द्वार की हो गई हूँ। अब मेरा घर कहाँ? मेरे जीवन के सर्वस्व आज आपके साथ हैं। मैं पति को छोड़कर कैसे जा सकती हूँ? आप धर्मराज होकर मुझे बिना आधारवाली को यह क्या आज्ञा दे रहे हैं?

यम ने कहा---सती! मैं तुम्हारी बात से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम सत्यवान के जीवन को छोड़कर और कोई वरदान माँगो।

सावित्री ने विनती कर कहा---हे धर्मराज! जो आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिए कि मेरे ससुर को उनका खोया हुआ राज्य मिल जाय।

यमराज ने कहा---ऐसा ही होगा।

यमराज फिर अपनी पुरी की ओर चले। उन्होंने कुछ दूर जाने पर पीछे फिरकर देखा कि सावित्री ने अभी तक साथ नहीं छोड़ा है।

यमराज को अचरज हुआ। उन्होंने सोचा कि यह साधारण स्त्री नहीं है। उन्होंने कहा---सावित्री तुम जाओ। यह प्रेतों की पुरी का डरावना मार्ग है। सामने भयानक वैतरणी नदी है। इसी के उस पार मेरा राज्य है। विधाता के काम में बाधा देना धर्म के विरुद्ध है। अब आगे मत बढ़ो। मैं तुम्हारा धर्म-ज्ञान देखकर चकित हुआ हूँ; सत्यवान के जीवन को छोड़कर तुम और कोई वर माँगो।

सावित्री ने सोचा कि मेरे पिता के कोई पुत्र नहीं है। अँधेरी रात में एकमात्र तारे की तरह वे मेरे ही भरोसे हैं। यह सोचकर उसने पिता के सौ पुत्र होने का वर माँगा।

यमराज ने कहा---ऐसा ही होगा; बेटी! ऐसा ही होगा। अब आगे मत बढ़ो। जाओ, सास-ससुर की सेवा करके धन्य होओ।