राम ने कहा---माता! तुमको अभी मालूम नहीं है कि आज की खुशी रंज में बदल गई। मैं आज राज-सिंहासन पाने के बदले और एक कठिन परीक्षा में पड़ा हूँ। इस परीक्षा में स्वार्थ की आहुति देकर परार्थ को ऊँचा आसन देना होगा। तुम्हारी पवित्र चरण-रज मेरे जीवन की ग्लानि दूर करके मेरे हृदय को बलवान् बनावे, तुम्हारा स्नेह-कवच मुझे आज कर्म के युद्ध में जय दे; ऐसा आशीर्वाद दो।
कौशल्या ने कुछ नहीं समझा। रामचन्द्र ने माता को सब हाल सुना दिया। सुनकर कौशल्या, पागल की तरह, हाहाकार करती हुई बेहोश हो गई।
बड़ी-बड़ी कोशिशों से राम-लक्ष्मण ने उन्हें चेत कराया। कौशल्या रामचन्द्र को वन जाने से मना करने लगीं। किन्तु रामचन्द्र, ने कहा---माता! मैं राज्य छोड़कर वन नहीं जाऊँगा तो पिता का वचन न रहेगा। पिता का मान रखना, और सत्य पालना, पुत्र का अवश्य कर्तव्य है। मेरे वन न जाने से पिता का सत्य-भङ्ग होगा। माँ! मैं तुम्हारे पवित्र गर्भ से जन्म लेकर क्या ऐसा नीच हूँगा? तुच्छ वनवास का इतनासा क्लेश क्या सहन न कर सकूँगा? माँ! हमारे पिता तुम्हारे भी गुरु हैं, इसलिए तुम भी इस विषय को ज़रा सोच-समझ लो।
रामचन्द्र की ये बात सुनकर कौशल्या आँसुओं की धारा बहाने लगीं। वे किसी तरह ऐसे कठोर विषय में सम्मति न दे सकीं।
रामचन्द्र ने समझा-बुझाकर कौशल्या का ढाढ़स दिया। अन्त में वे माता की आज्ञा लेकर प्रियतमा सीता के पास गये।
सीता ने सब हाल सुनकर रामचन्द्र के साथ वन जाने की इच्छा प्रकट की। रामचन्द्र सीता को, किसी तरह, साथ नहीं