ललचाकर और कभी डराकर मालिक का मतलब साधने का उपाय करने लगीं।
एक दिन उदास-वदन सीता देवी अशोक-वृक्ष के नीचे, बादल छाई हुई रात्रि के आकाश में क्षोण चन्द्र-किरण की तरह, शोभा पा रही हैं। इतने में पाप-बुद्धि-मदान्ध रावण ने वहाँ आकर कहा-हे कटीली नज़रवाली! एक बार मेरी ओर नज़र फेरकर मेरे तड़पते हुए कलेजे को ठण्डा करो। सुन्दरी! अभी तक तुमने इस सुन्दर शरीर में धूल भरा कपड़ा क्यों लपेट रक्खा है? कमल को लजानेवाले इन नेत्रों को आँसुओं के जल से क्यों विगाड़ रही हो? तुम्हारे विलास के लिए लङ्का के राज-भण्डार का द्वार खुला हुआ है। त्रिलोकविजया दशानन तुम्हारे चरणों में राज-मुकुट रखता है।
सीता ने रावण के रक्खे हुए राज-मुकुट को लात मारकर कहा—पापी! अगर जीने की इच्छा है तो अभी मेरे सामने से दूर हो! सुनहरी चोटोवाली लङ्का की राजश्री तेरे जैसे का-पुरुष के आश्रय में रहने से धूल में क्यों नहीं मिल जाती? वसुन्धरा अभी तक तेरे पाप-बोझ को क्यों ढो रही है? अगर धर्म कोई वस्तु है तो तेरी यह असंयत जीभ ऐसी पापभरी बातों के कारण अवश्य ही गिद्ध-गीदड़ों के पेट में जायगी। पापिष्ट! मेरे अमित तेजवाले स्वामी के क्रोधाग्नि में तरी पाप से पैदा की हुई लङ्का की यह धन-राशि अवश्य भस्म होगी। अभागे! यदि प्राण प्यारा है तो तुरन्त यहाँ से चला जा।
कोमल स्वभाववाली सीता देवी की देह से वीरता का तेज निक- लने लगा। उनके कण्ठ से वज्र के समान कठोर शब्द निकलने लगे। उस लावण्य-लतिका ने मानो आज रण-चण्डी का वेष धारण कर लिया। पापात्मा रावण उस रुद्र-मूर्त्ति से सहमकर रनिवास में चला गया।