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आख्यान]
२७
सीता

लक्ष्मण ने कहा—आर्य्य! शोक विपद को और बुलाता है; आप जैसे महान् पुरुष को शोक करना उचित नहीं। कर्त्तव्य सोचिए। विपद में धैर्य धारण करना चाहिए। चलिए, हम लोग सीताजी का पता लगावें। तब,

प्रति वन प्रति तरु के तले प्रति गिरि-गह्वर मांहि।
खोजि थके सब ठौर जब मिली जानकी नांहि॥
सहि न सके रघुनाथ तब दुःसह सीय-वियोग।
विकल भये लखि आपको दुखी भये सब लोग॥

इस तरह सीता को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उन्होंने पंखकटे, लहू से लथपथ एक अधमरे गिद्ध को देखा। उसका जीवन बुझते हुए दीपक की तरह टिमटिमा रहा है। इतने में उसने रामचन्द्र को देखकर प्रणाम करते हुए क्षीण-कण्ठ से कहा—"वत्स! तुम आ गये। मैं तुम्हारे पिता का मित्र, जटायु, हूँ। रघुकुल-कमलिनी सीता को लङ्का का राजा रावण हर ले गया है। उस दुष्ट के हाथ से उसका उद्धार करने जाकर मेरी यह दशा हुई है। मेरा जीवन-प्रदीप बुझने पर है। मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा रहा है—तुम्हारी पवित्र-मूर्त्ति दिखाई नहीं देती।" इसके साथ ही जटायु की, मृत्यु-मुख में समाई हुई, आँखें सदा के लिए बन्द हो गईं। जटायु की मृत्यु से राम-लक्ष्मण का पितृ-शोक नया हो गया।

लक्ष्मण की तत्परता से रामचन्द्र जटायु को अन्त्येष्टि-क्रिया करके क्रौंचारण्य में[१] पहुँचे। वहाँ कबन्ध नाम का एक भयानक राक्षस रहता था। रामचन्द्र के तीखे बाण से वह मारा गया। कबन्ध ने ऋष्यमूक-बासी सुग्रीव की सहायता से, सीता-उद्धार की सलाह देकर प्राण छोड़ा।


  1. * जनस्थान से तीन कोस के फ़ासले पर एक वन।