क्या नहीं भस्म होता? सुख की कौनसी सामग्री जलकर ख़ाक नहीं होती? सोचकर सीता बड़ी उत्कण्ठा से समय बिताने लगीं।
सीता की दुर्भाग्य-रूपी रात्रि में एक-मात्र तारा, विभीषण की पत्नी, इसी समय वहाँ गई। सीता ने लङ्का की ओर दृष्टि करके पूछा—"सखी! इतना हल्ला क्यों मचा हुआ है? आग क्यों लगी है?" तब सरमा ने सीता से सब हाल कहा। सीताजी सुनकर हनुमान् के लिए चिन्ता रने लगीं। सरमा ने कहा—"सखी! उनके लिए कुछ डर नहीं। वे तो आग लगाकर फुर्ती के साथ समुद्र पार कर गये।" यह सुनकर सीता की चिन्ता दूर हुई।
[ ७ ]
सुग्रीव आदि बन्दरों की सेना के साथ रामचन्द्र उदास मन से दिन बिता रहे हैं। इतने में हनुमान "रामचन्द्र की जय" कहते हुए हर्षपूर्वक रामचन्द्र के पास पहुँच गये। रामचन्द्र ने हड़बड़ाकर पूछा—"क्यों हनुमान्! सीता देवी का कुछ समाचार ले आये?" हनुमान् ने सीता का दिया हुआ चूड़ामणि रामचन्द्र के हाथ पर रक्खा। उस चिह्न को देखकर रामचन्द्र रोने लगे। उन्होंने व्याकुल होकर पूछा—हनुमान्, तुमने मेरी सीता को किस अवस्था में देखा? तुमने जब मेरी बात बताई तब उस सती ने क्या कहा?
हनुमान ने कहा—देव! मैंने पहले लङ्का में बहुत ढूँढा पर कहीं भी रघुकुल-कमलिनी सीता देवी का दर्शन नहीं पाया। अन्त में निराश होकर घूमते-घूमते मेरी दृष्टि अचानक अशोक-वन की हरी शोभा पर पड़ी। देखते ही मेरे जी में आप से आप यह वाणी निकली कि यहीं मेरी माता, बादलों से घिरी हुई चन्द्रकला के समान, विराजमान हैं। मेरा मन उत्साहित हुआ। अशोक-वन में घुसकर मैंने देखा कि भूख-प्यास से दुर्बल बनी हुई एक दुखिया स्त्री वृक्ष के नीचे खड़ी