पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १४० )

इस चाल को, गाजपड़े उन औरतों पर। मैं तो तब ही मर जाती तो अच्छा होता।"

बस इस तरह पंडित जी ने अपनी प्राणप्यारी को कृष्ण चरित्र का संक्षेप से अर्थ समझाया। इन्होंने अपनी शक्ति भर शक्ति से अधिक नहीं इस यात्रा के बजट में जितना नियत किया था उतना बंदर चौबे को दे दिला कर, उसके द्वारा चौबाइन के पास पहुँचा कर दंपति को प्रसन्न कर दिया किंतु चौबायिन को परदे की ओट से सुना कर अंत में इतना अवश्य कह दिया कि―

"अब ऐसे लंठ रहने का जमाना नहीं है। यदि तुम्हें अपने यजमान बनाए रखना है तो अपने चिनगी (यही चौबेजी के लड़के का नाम था) को संस्कृत पढ़ाना। अधिक विद्वान हो जाय तो अच्छी बात है। नाम पावेगा। नहीं तो कम से कम इतना अवश्य हो जाना चाहिए कि यह अपना कर्म आप कर सके। तुम्हारी मूर्खता से ही हमें गौड़वोले महाशय को रखना पड़ा। और इसमें तुमने नुकसान नहीं उठाया। यदि तुम्हारी तरह तुम्हारा लड़का भी लंठ रहा तो बस समझ लो कि सब यजमान तुम्हारे हाथ से निकल जाँयगे। क्योंकि किसी दिन ऐसा उद्योग होनेवाला है जिससे मूर्ख पंडों की वृत्ति बंद कर के पंडितों को दी जाय।"

"अच्छो जजमान! तिहारी मर्जी? या छोरा कूँ याकी अम्मा ने पढ़वे बैठारयो तो है पर जजमान याहू हमारी न्याँईं