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प्रकरण―३

बूढ़े का गृहराज्य।

ज्येष्ठ का महीना है। ठीक दुपहरी का समय है। लू बहुत जोर शोर से चल रही है। एक पीपल के पेड़ के सिवाय कहीं छाय का नाम नहीं। कौवे, चौल्ह, चिड़ियाँ, तोते, मोर और कोयलों को उस पेड़ के सिवाय कहीं सिर मारने की जगह नहीं। लू कहती है कि-"जैसी आज चलूगी वैसी फिर कभी नहीं। जितना जोर मुझे दिखलाना है सब आज ही।" इधर सूर्य की प्रखर किरणों से शरीर झुलसा जा रहा है। तो उधर लू के मारे मन व्याकुल हुना जा रहा है। ऐसी लू में, कड़ी धूप में काम करते करते, हल खैंचते खैंचते बिचारे गौ के जाये भी घबड़ा उठे हैं। घबड़ाने में उनका दोष थोड़े ही है। प्रातः काल के चार बजे से उनके कंधों पर जूड़ी रखी गई है। एक, दो, चार नहीं पूरे आठ घंदे हो गए। परिश्रम की भी कोई हद है। केवल जिनकी बदौलत मनुष्य जाति का पेट भरता है उनकी यह दशा! खाने के लिये थोड़ा सा भूसा देकर इतना कठोर परिश्रम! आज लू लगकर, अथवा मेहनत से थक कर एक दो बैल मर जाय-मर मिटैं तो क्या आश्चर्य? मेहनत करते करते हार छूटे। कोई उनमें से धबड़ाकर गिरने लगा और कोई यदि गिरा नहीं तो उसने जूड़ा डाल दिया।