पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/८२

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"इस बार का अपराध इसका क्षमा कर दो। नहीं तो बिचारा यात्रा बिना रह जायगा। इस गरीब को यात्रा कहाँ? "क्यों? क्या तेरा यह कुछ…जब देखो तब (जरा मुसकरा कर) इसे यों ही बचा देती है। (अपनी हँसी को होठों से दवाते हुए) कुछ दाल में……

"बस बस! हर बार (तिउरियाँ चढ़ा कर आँखें मट- काती हुई) की दिल्लगी अच्छी नहीं होती। भाड़ में जाय यह और चूल्हे में जाय इसकी नौकरी। मैं तो इसे पीढ़ियों का नौकर समझ कर इस पर दया करती थी। तुम्हें बंद करना है तो कल करते आज ही कर दो। मुझे क्या गरज है?"

"ओ हो! जरा सी बात पर इतनी नाराज? अच्छा तेरी इस पर इतनी कृपा है तो इसे बंद नहीं करेंगे। हाँ हाँ! सच तो है यह तेरा नौकर है।"

"बस जी कह दिया! एक बार नहीं सौ बार कह दिया। दिल्लगी मत करो। निगोड़ी ऐसी हँसी भी किस काम की? तुम्हारी हँसी और मेरी मौत! कोई जाने सच और कोई जाने झूठ! और तुम्हें सचमुच ही संदेह हो तो वैली कह दो! पेट में मत रक्खो। साफ साफ कह डालो।"

"नहीं संदेह वंदेह का कुछ काम नहीं। यों हीं मज़ाक से कह दिया। तू नाराज होती है तो हम अब मज़ाक ही न करेंगे। हम हारे और तू जीती।"