पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१०७

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आठवां परिच्छेद


जीवानन्दको तो काठसा मार गया उनकी बोली बन्द हो गयी। अपनेको बहुत कुछ सम्हाल कर वे बोले,-"क्या तुम शांति नहीं हो?"

शान्तिने घृणाके साथ कहा,-"नहीं, मेरा नाम नवीनानन्द गोस्वामी है।" यह कह, वह फिर पुस्तक पढ़ने लगी।

जीवानन्द बड़े जोरसे हंस पड़े, बोले,–“यह तो गिलहरी एकदम नया रङ्ग लायी है। अच्छा, तो कहो नवीनानन्दजी! तुम्हारा यहां किस लिये आना हुआ?"

शान्तिने कहा,-"भले आदमियोंके बातचीत करनेका यह नियम है, कि पहले पहलकी देखादेखोमें बातचीत करते समय आप या जनाब वगैरह कहकर पुकारते हैं। आप देख रहे होंगे; कि मैं स्वयं भी आपके प्रति कोई अनादरसूचक शब्द मूंहसे नहीं निकालती। फिर आप क्यों मुझे तुम तुम कह रहे हैं?" “जो आज्ञा सरकारकी' कहकर जीवानन्दने गले में चादरलपेट, दोनों हाथ जोड़कर कहा,--"अब यह दास आपसे विनयके साथ यह निवेदन करता है, कि आप कृपाकर इसे यह बतला दें, कि आपका भरुईपुरसे शुभागमन किस निमित्त हुआ?"

शान्तिने बड़ी गम्भीरतासे कहा,-"अब आपने यह व्यर्थकी तानेजनी शुरू की। इसकी तो कोई जरूरत नहीं थी। मुझे भरुईपुरका नामतक नहीं मालूम। मैंने आज यहां आकर सन्तानधर्मको दीक्षा ग्रहण की है।"

जीवा०—“ऐं, यह तो सब चौपट हुआ देखता हूं। क्या यह सच है?"

शान्ति–“चौपट क्यों? आपने भी दीक्षा ली है?"

जीवा०-"तुम स्त्री जो ठहरी।"

शान्ति-"यह क्या? यह बात आपको कैसे मालूम हुई?”

जीवा०-“मेरा विश्वास था, कि मेरी ब्राह्मणी स्त्री जातिकी है।"