करो जिससे कार्योद्धार हो। जीवानन्दके प्राण बचाओ। अपनी भी प्राणरक्षा करो।"
यह कह सत्यागन्द "हरे मुरारे मधुकैटभारे” गाते हुए चले गये।
धीरे धीरे सन्तान-सम्प्रदायवालोंमें यह संवाद फैल गया, कि सत्यानन्द लौट आये हैं और उन्होंने सन्तानोंको कुछ आदेश देनेके लिये बुलाया है। बस, सन्तानोंके दल-के-दल आकर इकट्ठ होने लगे। चांदनी रातमें, नदीकी रेतीली भूमिके पास घने जंगलमें, जहां आम, कटहल, ताड़, इमली, पीपल, बेल, बड़ और सेमल आदि के हजारों वृक्ष लगे हुए थे, वहीं दस हजार सन्तान आकर जमा हुए। एक दूसरेके मुंहसे सत्यानन्दके आनेकी बात सुनकर ये लोग महा कोलाहल करने लगे। सत्यानन्द किस लिये और कहां गये हुए थे, यह सबको नहीं मालूम था। अफवाह थी कि वे सन्तानोंके मंगलकी कामनासे हिमालयपर तपस्या करने गये हुए हैं। आज सभी आपस में इसको चर्चा कर रहे हैं कि-"मालूम होता है, महाराजकी तपस्या सिद्ध हो गयी। अब राज्य हमारा हो जायगा।"
उस समय बड़ा शोरगुल मचा। कोई चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा--"मारो, मारो इन मुसलमानोंको।” कोई कहने लगा-“जय, महाराजकी जय!” कोई “वन्देमातरम्" गीत गाने लगा। कोई कहता-“भाई! क्या कोई ऐसा भी दिन आयेगा, जब हम तुच्छ बङ्गाली भी रणक्षेत्रमें प्राणत्याग करेंगे,"