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आनन्द मठ

पास में एक छोटासा जलाशय था, उसमें से अपना वस्त्र भिंगो लाये और उसी जलसे अपने मुंह, हाथ, पैर धोये।

कल्याणी का जी कुछ ठंढा हुआ। पर क्षुधा की ज्वाला से वे बड़े व्याकुल हो उठे। पर अपने पेट की उन्हें उतनी परवाह नहीं थी, जितनी कन्या के लिये थी। उसे वे भूखी-प्यासी नहीं देख सकते थे। इसलिये वे लोग फिर रास्ता चलने लगे। उसी भीषण आग की लूह में चलते हुए वे सांझ होते होते एक चट्टी में आ पहुंचे। महेन्द्र मन ही मन बड़ी आशा किये हुए थे कि चट्टी में पहुँचने पर स्त्री कन्या के मुंह में ठंढा पानी और प्राणरक्षा के लिये चार दाने अन्नके पहुंचा सकेंगे। पर चट्टी में तो आदमी जनका कहीं पता ही नहीं है। बड़े बड़े घर हैं, पर सब खाली पड़े हैं। आदमी सब भाग गये हैं। इधर उधर देख भालकर महेन्द्र ने स्त्री कन्या को एक घर में सुला दिया और आप बाहर आकर जोर जोर से आवाजें देने लगे, पर किसी ने उत्तर नहीं दिया।

महेन्द्र ने कल्याणी कहा,—"तुम जरा साहस करके थोड़ी देर अकेली बैठी रहो, मैं जरा देख; कहीं भगवान की दया से गाय मिल जाय, तो थोड़ा दूध दूह लाऊ।” यह कह महेन्द्र वहीं पर पड़ा एक छोटासा मिट्टी का घड़ा लिये बाहर निकले।

 

 
दूसरा परिच्छेद।

महेन्द्र के चले जाने के बाद कल्याणी अकेली बैठी, कन्या को गोद में लिये हुए, उस जनशून्य, अंधेरी कोठरी में चारों तरफ दृष्टि दौड़ा रही थी। उसके जी में बड़ा भय पैदा हो रहा था। कहीं कोई आदमी नहीं; किसी मनुष्य को आहटतक नहीं मिलती, केवल स्यार कुत्तों का भूकना सुनाई पड़ता था! वह मन ही मन सोच रही थी,—"मैंने क्यों उन्हें जाने दिया?