पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१८१

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सतवां परिच्छेद


है। तुम चित्त स्थिर कर जरा इस लाश की परीक्षा करके देखो। पहले नाड़ी देखो।"

शान्तिने उस लाशकी नाड़ी पकड़कर देखी। नाडीमें एकदम गति नहीं थी। उन्हीं महापुरुषने कहा-"छातीपर हाथ रखकर देखो।"

शान्तिने कलेजेपर हाथ रखकर देखा कि धड़कन एकदम नहीं है। सारी देह ठण्डी हो रही है।

उस पुरुषने फिर कहा-"नाकके पास हाथ ले जाकर देखो, सांस चलती है या नहीं?"

शान्तिने देखा, सांस बिलकुल बन्द है।

उस पुरुषने कहा-“अच्छा, अबकी बार मुहमें उंगली डालकर देखो, कुछ गरमी मालूम होती है या नहीं?"

शान्तिने उंगली मुंहमें डालकर देखा और कहा--"मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आता।" शान्तिके मनमें आशा पैदा हो रही थी।

महापुरुषने बायें हाथसे जीवानन्दकी लाश छुई। बोले-- "तुम बहुत डर गयी हो, हिम्मत हार गयी हो, इसीले तुम्हें नहीं मालूम पड़ता। एक बार फिर देखो। मुझे तो अबतक शरीरमें कुछ गरमी मालूम पड़ती है।"

शान्तिने अबकी फिर नाड़ी देखी, कुछ-कुछ चलती जान पड़ी। अचरजमें आकर उसने कलेजेपर भी हाथ रखकर देखावह भी कुछ-कुछ धड़कता हुआ मालूम पड़ा। नाकके पास उंगली ले जाते ही सांस चलनेकी आहट मिली। मुखके भीतर भी गरमी मालूम पड़ी।

शान्तिने पूछा- क्या अबतक इस शरीरमें प्राण थे? अथवा आपने नयी जान डाल दी है?"

वे बोले-“बेटी! कहीं ऐसा भी होता है! क्या तुम उसे ढोकर तालाबके पास ले चल सकती हो? मैं चिकित्सक हूं। वहीं उसकी चिकित्सा करूंगा।"