पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१९१

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परिशिष्ट

है। यही खबर मुझे उस समय मिली थी और जैसी अवस्था थी, उससे मुझे यह बात ठीक भी मालूम पडी। पर मालूम होता है कि या तो वे ब्रह्मपुत्र-नदी को पार न कर सके या अपना इरादा बदल दिया। वे २-२ या ३-३ हजार के दलमें विभक्त होकर एकाएक रङ्गपुर और दिनाजपुर के मिन्न-भिन्न स्थानों में दिखाई दिये। देशवासियों को कड़ी-कड़ी धमकियां दी गयी हैं कि अगर वे संन्यासियों के आने की सूचना तत्काल न दे दिया करेंगे, तो उनकी बड़ी सख्त सजा की जायगी। तो भी लोगों पर इन संन्यासियों का जादू ऐसा चढ़ा हुआ है कि कोई सूचना तक नहीं देता। अतः जबतक वे बस्तियों में घुस नहीं आते हम लोगों को उनका कुछ पता नहीं लगता। मानों ये लोग इन देशवासियों की मूर्खता का दण्ड देनेके लिये आसमान से उतर आये हैं। हाल में इनका एक दल कप्तान एडवार्डिस के सैन्य दल से भिड़ गया था। इस लड़ाई में कप्तान एडवार्डिस एक नाले को पार करते समय मारे गये जौर उनके सिपाही भाग खड़े हुए। इस दल में हमारे सबसे रद्दी परगना-सिपाही भरे हुए थे, जिन्होंने बुरी तरह पीठ दिखाई। इस जीत से संन्यासियों की हिम्मत बढ़ गयी और उन्होंने उक्त जिलों में हर जगह ऊधम मचाना शुरू कर दिया। कप्तान स्टुअटे ने १६वीं नम्बर पलटन के साथ उनका पीछा किया, पर कोई नतीजा न निकला। जबतक वे एक जगह पहुंचते संन्यासी उसे ध्वंस कर चम्पत हो जाते थे। मैंने वरहमपुर से एक दूसरो पलटन कप्तान स्टुअर्ट से मिलकर काम करने-के लिये भेज दी। उन्हें स्वतन्त्र युद्ध करने की पूरी स्वतन्त्रता दे दी थी ताकि उन्हें मुकाबिला करने का अच्छा अवसर मिले। साथ ही मैंने दानापुर की एक पलटन को तिर्हुत होते हुए पूर्निया-की उत्तरी सीमा होकर उसी राह से होकर जाने का हुक्म दे दिया है जिधर से संन्यासी बहुधा जाया करते हैं ताकि यदि वे उस राह से गये तो घेर लिये जायंगे। इस पलटन को यह भी हुक्म