पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१५
चौथा परिच्छेद

शोरगुल के साथ बनमें चारों ओर दौड़ना शुरू किया। लड़की डरके मारे और भी जोर जोरसे रोने लगी। कल्याणीने लाचार हो, भागनेका विचार छोड़ दिया। एक बड़ेसे पेड़के नीचे, जहां हरी हरी घास उगी थी और कुश-कांटे नहीं थे, कन्याको गोदमें लिए वह बैठकर पुकार पुकारकर कहने लगी-“हे भगवन्! तुम कहां हो? मधुसूदन! तुम्हें मैं नित्य पूजती और प्रणाम करती हूं। तुम्हारे ही भरोसे मैं इस जंगलमें घुसी थी। बताओ तुम कहाँ हो? इसी समय भय तथा भक्तिकी प्रगाढ़ता और क्षुधा तृष्णाकी मारसे बाह्य ज्ञानशून्य हो आन्तरिक चैतन्यसे भरकर कल्याणीको अन्तरिक्षमें स्वर्गीय गान सुनाई देने लगा, मानों कोई गा रहा है--

"हरे मुरारे, मधुकैटभारे!
गोपाल गोविन्द मुकुन्द शौरे!
हरे मुरारे मधु कैटभारे!"

कल्याणी लड़कपनसे ही पुराणोंमें सुनती आयी थी कि, देवर्षि नारद वीणा हाथमें लिये, हरिनामका कीर्तन करते, गगन पथमें विचरण करते हुए भुवन-भ्रमण किया करते है। यही कल्पना उसके मनमें जाग उठी। उसे मालूम होने लगा मानों शुभ्र-शरीर, शुभ्र-केश, शुभ्र-वसन, महाशरीर, महामुनि वीणा हाथमें लिये, चन्द्रलोकमें प्रदीप्त नीलाकाशमें गा रहे हैं,-

"हरे मुरारे मधुकैटभारे!"

क्रमशः गीत और भी पास सुनाई देने लगा। उसे साफ सुनाई दिया कि कोई कह रहा है-"हरे! मुरारे!! मधुकैटभारे!!!"

क्रमशः गाना और भी निकट-और भी स्पष्ट-मालूम पड़ने लगा। मानों कोई गाता है-

"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!”

अन्तमें कल्याणीके सामने वनस्थलीसे भी उस गीतकी प्रतिध्वनि गूंज उठी--