पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/७०

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सोलहवां परिच्छेद


हाथ अपने हाथ में ले लिया। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसकी आंखोंमें जल आया ही नहीं, पर उसने उसे बाहर नहीं होने दिया, क्योंकि परमात्मा जानता है, कि जो सोता उसकी आंखोंसे जारी हुआ चाहता था, वह यदि निकल पड़ता, तो जीवानन्द उसमें डूब जाते। लेकिन उसने उसे बहने न दिया। जीवानन्दका हाथ अपने हाथमें लेकर उसने कहा-"है! रोते क्यों हो? मैं जानती हूं कि तुम मेरे ही लिये रो रहे हो; पर मेरे लिये रोनेका कोई काम नहीं है। तुमने मुझे जिस अवस्थामें रख छोड़ा है, मैं उसीमें सुखी हूं।"

जीवानन्दने सिर ऊपर उठाया, आंखें पोंछकर पूछा-"शान्ति! तुम्हारे बदनपर यह जोर्ण शीर्ण फटा कपड़ा क्यों? तुम्हें तो खाने पहननेका कोई दुःख नहीं है?"

शांतिने कहा-"तुम्हारा ऐश्वर्य तुम्हारे लिये है। मैं क्या जानूं कि रुपया पैसा किस काम आता है। जब तुम घर फिर आओगे, मुझे ग्रहण करोगे।"

जीवा-"ग्रहण करना, क्या मैंने तुम्हें त्याग दिया है?"

शांति-"त्याग नहीं दिया है तो भी जब तुम्हारा व्रत पूरा होगा और तुम फिर मुझे स्नेह करने लगोगे”-बात पूरी भी न होने पायी थी कि जीवानन्दने शांतिको गलेसे लगा लिया और उसके कन्धेपर सिर रख बड़ी देरतक चुप रहे। फिर लम्बी सांस लेकर बोले-"हाय, मैंने क्यों मुलाकात की।"

शांति-"क्यों की। इससे तुम्हारा व्रत भङ्ग हो गया।"

जीवा०-हुआ करे। इसका प्रायश्चित्त भी तो है? इसकी चिन्ता मुझे नहीं हैं, पर तुम्हें देखकर तो अब मुझसे जाया नहीं जाता। मैं इसीसे निमाईसे कह रहा था, कि मिलने मिलाने का काम नहीं है, क्योंकि तुम्हें देखनेके बाद मुझसे घर नहीं छोड़ा जायगा। एक ओर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जगत, संसार, व्रत, होम, याग, यज्ञ सब कुछ और दूसरी तरफ तुम अकेली