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आनन्द मठ


इस आकस्मिक विपत्तिसे भयभीत हो लोग इधर-उधर भाग चले। नगर-रक्षक तो अवाक रह गये।

सन्तानोंने सबसे पहले सरकारी जेलखाने में जाकर उसे तोड़ डाला। वहांके पहरेदारों को मार, सत्यानन्द और महेन्द्रको छुड़ा उन्हें कन्धेपर बैठाकर नाचने-कूदने लगे। उस समय हरि नामका भजन और भी जोर जोरसे होने लगा। सत्यानन्द और महेन्द्रको छुड़ानेके बाद वे जहां कहीं मुसलमानोंका घर देख पाते, उसमें आग लगा देते थे। यह देख सत्यानन्दने कहा, "चलो, लौट चलो। व्यर्थ उपद्रव करनेसे कोई काम नहीं है।"

सन्तानोंके इस उपद्रवका संवाद पाकर देशके शासक ने उनके दमनके लिये सैनिकोंका एक दल भेजा, जिनके पास केवल बन्दूकें ही नहीं एक तोप भी थी। इनके आनेकी खबर पाते ही सन्तानगण उस जंगलसे निकलकर युद्ध करनेके लिये आगे बढ़े। लेकिन तोपके आगे लाठी, बर्ची या बीस-पच्चीस बन्दूकों की क्या बिसात थी?

सन्तानगण, पराजित हो, भागने लगे।