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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/८७

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दूसरा परिच्छेद


यही सब सोच-विचारकर उसने चूल्हेमें भात फेंक दिया और जंगलसे फल तोड़ लायी। अन्नके बदले उसने वही फल खाये। इसके बाद जिस ढाकेकी साड़ीपर निमाई इतनी लट्ट थी, उसे बाहर निकालकर उसने उसकी किनारी फाड़ डाली और उसे पक्के गेरुए रंगमें रंग डाला। यह सब करते करते संध्या हो गयी। संध्या हो जानेपर घरके किवाड़ बन्द कर शांति एक अद्भुत व्यापारमें प्रवृत्त हुई। उसने कैंची लेकर अपने घुटनेतक लटकनेवाले रूखे बाल डाले। जो कुछ बचे, उन्हें लपेटकर उसने जटा बना ली। रूखे बाल अजीब तरहसे जटासे बना लिये गये। इसके बाद उस गेरुए वस्त्रके दो टुकड़े कर उसने एक टुकड़ेका लंगोटा बनाकर पहना और दूसरेकी गांती बनाकर ओढ़ ली जिससे उसका शरीर ढक गया। घरमें एक छोटासा आईना रखा था। उसे आज बहुत दिनों बाद उसने बाहर निकाला और उसमें अपना रूप देखने लगी। देखते देखते बोली-“हाय! क्या करनेको थी और मैंने क्या कर डाला?" तब आईनेको अलग फेककर उसने कटे हुए बालोंकी दाढ़ी-मूछे बनायीं: पर उन्हें लगा न सकी। उसने कहा-"छिः! छिः! क्या कहीं ऐसा भी होता है? अब वह समय कहां? पर हां, उस बूढ़ेको छकानेके लिये इन्हें रख छोड़ना ठीक है।" यही सोचकर उसने उन नकली दाढ़ी मूंछोंको कपड़ेमें छिपाकर रख लिया। इसके बाद उसने घरके अन्दरसे एक बड़ीसी मृगछाला निकाल, कण्ठमें बांध, कण्ठसे जानु पर्यन्त शरीर ढक लिया। इस प्रकार नूतन संन्यासीका रूप बना लेनेपर उसने एक बार घरके चारों तरफ स्थिर भावसे देखा। दोपहर रात बीतनेपर उसने उसी संन्यासी वेशमें किवाड़ खोल घरसे बाहर निकल उसी जङ्गलमें प्रवेश किया। वनकी देवियोंने उस आधी रातके समय जङ्गल में एक अपूर्व संगीत होता हुआ सुना।