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साहित्य और साहित्यकार

"साहित्य कलाका चरम विकास है और समाज का मेरुदण्ड। धर्म और राजनीति का वह प्राण है, इस लिए इसमें दो गुण होने, अनिवार्य हैं, एक यह कि वह आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करे और दूसरे, वह मानवता के धरातल को ऊंचा करे।

सामर्थ्यवान्काल-जैसे जगत के सब तत्त्वों को दूषित करता है, उसी भांति उसने साहित्य को दूषित किया है। इसी से साहित्य ने मानव का हनन किया। उसी भांति, जैसे विज्ञान ने मानव प्राणों का। और यही कारण है कि साहित्य और विज्ञान के इस उद्ग्रीव युग में मानव भौतिक और, आधिभौतिक विभूतियों का रहस्यविद् होने पर भी अपने चिरजीवन में सर्वाधिक असहाय और भयभीत है।

साहित्य और विज्ञान ही उसे अभयदान कर आप्यायित "कर सकता है, यदि वह अपना लक्ष्य मानवता के धरातल को ऊंचा करना बनाले।

मानव विश्व की सब से बड़ी इकाई है। परन्तु साहित्यकार मानव नहीं, क्योंकि वह अति-मानव का निर्माण करता है। वास्तव मे साहित्यकार महामानव है!

इसलिए उसका कोई अपना देश, धर्म राष्ट्र, समाज और स्वार्थ नहीं है और इन सबके प्रति उसका कोई कर्तव्य नहीं है।

उसका काम है निरंतर अतिमानवों का निर्माण करना और मानव आदर्श के लक्ष्य बिन्दु पर उनकी स्थापना करना। यह करने ही से वह मानवता के धरातल को ऊंचा करने में समर्थ हो सकता है।"

चतुरसेन