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पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/५७

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आवारागर्द


दिलीप महाशय के शरीर में रक्त की गति रुक रही थी, बोल नहीं निकलता था। उन्होंने रजनी के पैर छूकर कहा—"आह, चुप रहो, कोई सुन लेगाॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱ।"

रजनी क्रुद्ध सर्पिणी की भाँति कहती ही गई—

"अरे जब तक तुम जैसे अपवित्र लुच्चे युवक हैं स्त्रियाँ कभी निर्भय नहीं हो सकती। कहो—क्या हमें संसार मे हँसने, बोलने, घूमने, फिरने, अमोद-प्रमोद करने की जगह ही नहीं, हम चोर की भाँति लुक-छिपकर, पापी की भाँति मुँह ढँककर दुनिया मे जीऐ। और यदि ज़रा भी आगे बढ़े तो तुम जैसे लफंगे उसका ग़लत अर्थ लगा कर अपनी वासनाएं प्रकट करे? याद रक्खो, स्त्रियों को निर्भय रहने के लिये तुम जैसे खतरनाक नर-पशुओं का न रहना ही अच्छा है। जानते हो—जब मनुष्यों ने वनो को साफ करके सभ्यता विस्तार की थी तब वनचर खूँखार पशुओं को सवंश नाश कर दिया था—उनके रहते वे निर्भय नही रह सकते थे। सच्ची सभ्यता वह है जहाँ स्त्रियाँ निर्भय हैं—वनचर खूंख्वार जानवरों के रहते मनुष्य निर्भय नही रह सकते थे और नगरचर गुण्डो के रहते स्त्रियाँ निर्भय नही रह सकतीं। इसलिये मै तुम्हारे साथ वही सलूक किया चाहती हूँ जो मनुष्यों ने वनचर पशुओं के साथ किया था।"

इतना कहकर रजनी ने एकाएक एक बड़ा सा छुरा निकाल लिया।

छुरे को देखते ही दिलीप की घिग्घी बँध गई। वह न चिल्ला 'सकते थे, न भाग सकते थे, उनकी शक्ति तो जैसे मर गई थी। उन्होंने रजनी के पैरों में सिर डाल कर मुर्दे के से स्वर मे कहा—"क्षमा कीजिये देवी, आप इस बार इस पशु को क्षमा कीजिये।"