पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/६८

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. चिट्ठी की दोस्ती ६७ कॉपते हाथों से मैने पत्र लिखा । टाइप करना मैने पसन्द नहीं किया। पत्र लिखते समय मेरे हृदय की धड़कन बढ़ रही थी, मुझे ऐसा प्रतीत होता था, जैसे जीवन में रस का झर-झर झरना भरने लगा । स्वय ही मैने पत्र को पोस्ट कर दिया। [३] यथासमय जवाब मिल गया। लिफाफे को देखते ही मन-मयूर नाचने लगा । भीतर सुगन्धित पत्र किन्ही दिव्य हाथों से लिखा हुआ था । अक्षर मोती से थे और पत्र के एक कौने पर सुनेहरा मोनोग्राम था। पत्र के साथ ही प्रपिका का एक छोटा-सा, किन्तु अप्रतिम चित्र था। कोई भारतीय पुष्प उसकी समता नही कर सकता । गुलाब और कमल प्रगल्भ है, उनमें वह नजाकत और नाजुकपन कहाँ ? उन आँखों में जो आवाहन, होठों मे जो जीवन, सारी मुखाकृति मे जो माधुर्य था, उसकी न समता हो सकती है, न वर्णन । चित्र देखने मे मै इतना तन्मय हुआ कि पत्र पढ़ने का ध्यान ही न रहा । चित्र जैसे बोल उठेगा, वे होठ जैसे हिलने लगे, आखे जैसे हँसने लगी और मै जैसे उस चित्र मे खो गया । कुछ देर बाद पत्र का ध्यान आया । पत्र मे लिखा था "प्यारे प्रोफेसर, तुमसे मित्रता प्राप्त कर मै अत्यन्त आनन्दित हूँ। जब कभी भी हम मिलेगे, यह आनन्द कितना अधिक बढ़ जायगा । ओह ! मै तुम्हारे रहस्यमय देश को और उससे भी अधिक तुम्हें देखने को कितनी आतुर हूँ, परन्तु जब तक हम मिलते नही, तब तक अपने विस्तृत हालात लिखो, जिससे मै तुम्हें, अपने घनिष्ठ मित्र को, भली भाति जान सकूँ । और अपना एक फोटो भी भेजो। टेना, विलम्ब न करना । तुम्हारी सच्ची, सुक्रिया -