आना और सोलह सौ गोपियों का तलमलाना सामने आ गया । उन गोपियों में से ऊधो का हाथ पकड़कर एक गोपी के इस कहने ने सबको रुला दिया जो इस ढब से बोल के उनसे रुँधे हुए जी को खोले थी ।
चौचुक्का
जब छाँड़ि करील को कुंजन को हरि द्वारिका जीउ माँ जाय बसे।
कलधौत के धाम बनाए घने महाराजन के महराज भये।
तज मोर मुकुट अरु कामरिया कछु औरहि नाते जोड़ लिए।
धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए।
अच्छापन घाटों का
कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों राज की नदियो में थे, पक्के चादी के थक से होकर लोगों को हक्का-बक्का कर रहे थे। निवाड़े भौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, स्यामसुंदर, रामसुंदर और जितनी ढब की नावें थीं, सुनहरी रुपहरी, सज सजाई कसी कसाई और सौ सौ लचकें खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, ठहरातियाँ, फिरातियाँ थीं। उन सभी पर खचाखच कंचनियाँ, रामजनियाँ, डोमिनियाँ भरो हुई अपने अपने करतयों में नाचती गाती बजाती कूदतों फाँदती धमें मचातियाँ अँगड़ातियाँ जम्हातियाँ उँगलियाँ नचातियाँ और ढ़ुली पड़तियाँ थों और कोई नाव ऐसी न थी जो सोने रूपे के पत्तरों से मढ़ी हुई और सवारी से भरी हुई न हो। और बहुत सी नावों पर हिंडोले भी उसी डब के थे। उनपर गायनें बैठी मूलती हुई सोहनी, केदार, बागेसरी, काम्हड़ों में गा रही थीं। दल बादल ऐसे नेवाड़ों सब झीलों में छा रहे थे।