अपने घोड़े पर चढ़के अठखेल और अल्हड़पन के साथ देखता-भालता चला जाता था। इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट-पोट हुआ। उस हिरनी के पीछे सब छोड़ छाड़कर घोड़ा फेंका। कोई घोड़ा उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुँवर उदेभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जँभाइयाँ, अगड़ाइयाँ लेता, हक्का-बक्का होके लगा। आसरा ढ़ूँढ़ने। इतने में कुछ एक अमरइयाँ देख पड़ीं, तो उधर चल निकला; तो देखता है जो चालीस-पचास रंडियाँ एक से एक जोबन में अगली फूला डाले पड़ी मूल रही हैं और सावन गातियाँ हैं। ज्यों ही उन्होंने उसको देखा—तू कौन? तू कौन? की चिंघाड़-सी पड़ गई। उन सभों में एक के साथ उसकी आँख लग गई।
कोई कहती थी यह उचक्का है।
कोई कहतो थी एक पक्का है।
वही झूलने वालो लाल जोड़ा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहती थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया। पर कहने-सुनने को बहुत सी नाँह-नूह की और कहा—“इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न थक, जो तुम झट से टहक पड़े। यह न जाना, यहाँ रंडियाँ अपने मूल रही है। अजी तुम जो इस रूप के साथ इस रव बेधड़क चले आए हो, ठंडे-ठंडे चले जाओ।” तब कुँवर ने मसोस के मलोला खाके कहा—“इतनी रुखाइयाँ न कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड़ की छाँह में झोस का बचाव करके पड़ रहूँगा। बड़े तड़के धुँधलके में उठकर जिधर को मुँह पड़ेगा चला जाऊँगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पोछे सब लोगों को छोड़-छाड़कर घोड़ा फेंका था। कोई