अच्छा नहीं। अब उठ चलो और इनको सोने दो; और रोएँ तो पड़े रोने दो। बातचीत तो ठीक हो चुकी।" पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुँवर उदैभाव अपने घोड़े को पीठ लगाकर अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुँचे।
पर कुँवर जी का रूप क्या कहूँ। कुछ कहने में नहीं आता। न खाना, न पीना, न मग चलना, न किसी से कुछ कहना, न सुनना। जिस स्थान में थे उसी में गुथे रहना और घड़ी घड़ी कुछ सोच-सोच- कर सिर धुनना होते होते लोगों में इस बात की चरचा फैल गई। किसी किसी ने महाराज और महारानी से कहा—"कुछ दाल में काला है। वह कुँवर उदैभान, जिससे तुम्हारे घर का उजाला है, इन दिनों में कुछ उसके बुरे तेंबर और चेडौल आँखें दिखाई देती हैं। घर से बाहर पाँव नहीं धरता। घरवालियाँ जो किसी डौल से बह- लातियाँ हैं, तो और कुछ नहीं करता, ठंडी ठंडी साँस भरता है। और बहुत किसी ने छेड़ा तो छपरखट पर जाके अपना मुँह लपेट के आठ आठ आँसू पड़ा रोता है।" यह सुनते ही कुँवर उदैभान के माँ-बाप दोनों दौड़े आए। गले लगाया, मुँह चूम पाँव पर बेटे के गिर पड़े, हाथ जोड़े और कहा—'जो अपने जो की बात है, सो कहते क्यों नहीं? क्या दुखड़ा है जो पड़े पड़े कराहते हो? राज- पाट जिसको चाहो, दे डालो। कहो तो, क्या चाहते हो? तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता? भला वह क्या है जो हो नहीं सकता? मुँह से बोलो, जी को खोलो। जो कुछ कहने से सोच करते हो, अभी लिख भेजो। जो कुछ लिखोगे, ज्यों की त्यों करने में आएगी। जो तुम कहो कूँ एँ में गिर पड़ो, तो हम दोनों अभी गिर पड़ते हैं। कहो—सिर काट डालो, तो सिर अपने अभी काट डालते हैं।" कुँवर उदैभान, जो बोलते ही न थे, लिख भेजने का आसरा पाकर