पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२४
इन्दिरा

कहा घूमरी ने, मनमोहन!
तुम्हैं कौन पहिचानें?
हम सब जमना को रेतो को,
हरी घास को जानैं॥
खोजूं तुमरे चरन-चिन्ह को,
सुन वंशी अभिराम।
गऊं, भला क्या जानैं, ध्वज―
अजांकुश कमल ललाम॥”

पर मैं तो उस समय हंसी न रोक सकी और उ० बाबू ने उदास हो कर कामिनी से कहा,―

“रहो, बीबी! अब बहुत न जलाओ। तुम ने रात का नाच नाचा, इस के इनाम में यह पान का बीड़ा लो।”

कामिनी ने कहा―“ऐ! जीजी! देखती हूं कि जीजा में कुछ समझदारी भी है, ये निरे गोबरगणेश ही नहीं हैं।”

मैं―तुम ने इन में कौन सी समझदारी की बात देखी?

कामिनी―देखो न, जीजा ने चौघड़ि खोल बीड़ा तो मुझे दिया और पत्ता खुद खा लिया! यह समझदारी नहीं तो क्या है? इसलिये जीजी! तुम एक काम करो; कभी कभी इनसे अपने पैर दबाया करो, इस से इनके हाथ में सफाई आ जायगी।

मैं―मैं क्या इन्हें अपना पैर छुला सकती हूं? ये तो मेरे देवता हैं।

कामिनी―ये देवता कब से हुए? पति यदि देवता होता हो, तो ये अब तक तुम्हारे अगे उपदेवता क्यों बने रहे?