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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/३३

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२९
छठा परिच्छेद

अरे!-“बहिन!”-जो दासी होगी, उस के लिये ऐसा संबोधन!!! तो यदि दासी का काम करूगी तो इसी के यहाँ करूंगी। मन ही मन यह सोच कर मैंने उत्तर दिया,-“मेरे दो नाम है―एक चलित और दूसरा अप्रचलित। उन में जो अप्रचलित नाम है, वही आप की मौसी आदि से बतलाया है, इसलिये आप को भी अभी वही नाम बतलाती हूँ―मेरा नाम कुमुदिनी है।

बच्चा बोला,―“कुमुदिनी।”

सुभाषिणी बोलो,―“अच्छा! अपना दूसरा नाम इस समय ढका रहने दो हां! जाति तो कायस्थ है न?”

मैं ने हंस कर कहा, "हां हाल कायस्थ हैं।”

सुभाषिणी ने कहा,―“अच्छा अभी मैं यह तुम से नहीं पुछती कि तुम जिस की बेटी, जिस की बहू हो या तुम्हारा घर कहाँ है। पर इस समय जो मैं कहती हूं, उसे सुनो। यह मैं जान गई कि तुम भो किसी अमीर की लड़की हो-क्योंकि अभी तक तुम्हारे हाथ और गले में गहने की स्याही चढ़ी हुई है। इस लिये मैं तुम्हे दासो का काम करने के लिये न कहूँगी-तुम कुछ रसोई बताने जानती हो?"

मैंने कहा,―"जानती हूं” क्योंकि पोहर में मैं रसोई पानी में बड़ाई पा चुकी थी।

सुभाषिणी ने कहा-"अपने घर हम लोग सभी संधती हैं।

[बीच में बच्चा बोल उठा-माँ, अमलोग दांदतो हूं।] तौ भी कलकत्ते को रिवाज देख कर एकालव रसोईदायिन भी रखनी