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छठा परिच्छेद

हाँ! असल बात तो मैं भूल ही गई; ठहरो मैं अभी आती हूँ” यह कुछ कहे बहे झट से दाड़ कर अपनी मौसी के पास गई और बोली,―“क्यो मौसी! यह तुम्हारो कौन होती है?”

बस इतना तो मैं ने सुना; किन्तु उस की मौसी ने क्या जवाब दिया, सो न सुना। जान पड़ता है कि उन्हें जहां तक मालूम होगा, वही उन्हों ने कहा होगा। सच तो यह है कि वे कुछ भी नहीं जानती थीं; और यदि कुछ जानती भी थीं तो उतना ही कि जितना उन्हो ने पुरोहित जी से सुना था। बच्चा इस बार अपना माँ के संग नहीं गया; और मेरा हाथ धर कर खेलने लगा। और में उस के साथ उस के मन की बातें करने लगा। इतम में सुभाषिणी लौट आई।

बच्चा बोला,―“माँ, इन का हात देखो।”

सुभाषिणी ने हंस कर कहा,―“मैं ने बहुत पहले ही से देख लिया है।” फिर मुझ से कहा,―“चलो जो, गाड़ी तैयार है यदि न चलोगी तो मैं बरज़ोरी ले चलूंगी। परन्तु वह बात जो कही है, उसे मत भूलना, सासू जी को वश में कर लेना पड़ेगा।”

यह कह कर उस ने मुझे खींच के ले जा कर गाड़ी पर चढ़ाया। पुरोहित जी के दिये हुए दो रंगीन किनारे की साड़ी में से एक तो मैं पहिरे था; और दूसरी डोरी पर पड़ी सूख रही थी―पर से उतार लेने का अवसर मुझे सुभाषिणी ने न दिया। उस साड़ी के बदले में मैं उस के बच्चे को अपनी गोद में ले कर उस का मुंह चूमती चूमती चली।

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