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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/४५

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आठवा परिच्छेद।

मोल (आदर) कहां है? अब रसोईदारी करने के लिये रूप यौवन भी चाहिये।

उसकी बातों से मैंने समझ लिया कि मालिक ने रसोई खाकर सराहा है। किन्तु उस ब्राह्मणो के संग जरा मसख़री करने की साथ हुई, मैं बोली―“हां मिसराइन जी! रूप यौवन तो अवश्य ही चाहिये क्योकि बुढ्ढी को देख कर फिर क्या खाने को जी चाहता है?”

यह सुन दांत निकाल कर बड़े कर्कश स्वर से इसने कहा,―“जान पड़ता है कि तुम्हारा रूप यौवन सब दिन ऐसा ही बना रहेगा―मुंह में कीड़े न पड़ेगे?”

यह कह कर क्रोध मे लहकी हुई मिसराइन गई तो एक हांड़ी चढ़ाने पर उसे फोड़ बैठी। तब मैंने कहा,―“देखो, मिसराइन! रूप यौवन न रहने पर हाथ की हांड़ी भी फूट जाती है।”

तब तो मिसराइन आधी नंगी सी हो कर, संडसी उठा झझकती हुई मुझे मारने दौड़ी। बुढ़ापे के दोष से कान से ज़रा वह कम सुनती होंगी, इससे जान पड़ता है कि वे मेरी सब बातें न सुन सकीं। उन्हों ने मुझे बहुत ही ख़राब जवाब दिया। मेरा भी कौतूहल बढ़ा―मैंने कहा, ―“मिसराइन! चुप रहो, बेड़ी * (संड़सी) का हाथ में ही रहना अच्छा है।”

इसी समय सुभाषिणी उस घर के भीतर बैठी, पर ब्राह्मणी ने मारे क्रोध के उसे देखा नहीं और मुझ पर और भी झपट पर


* बंगला में बेडी में दो अभिप्राय हैं, संगती और बेडी।
अनुवादक