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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/६८

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इन्दिरा।

तो जान पड़ता है कि ऐसा ही कुछ न कुछ न हुआ होगा। और जान पड़ता है कि उन्हों ने कुछ कुटिल कटाक्ष देखा होगा। पुरुष लोग कहा करते है कि―“अंधेरे में दिये को भांति घूंघट के भीतर सुन्दरियों के कटाक्ष बहुत ही तोखे देख पढ़ते हैं।” तो जान पड़ता है कि उन्होंने भी ऐसा ही कुछ देखा होगा। बस उन्हों ने ज़रा मुसकुरा कर सिर नीचा कर लिया। उस मृदु मुस्कान को केवल मैंने ही देखा, सो बस, सारा आंस बन के पत्तल पर उझल कर मैं वहां से चल दी।

मैं ज़रा लजा गई और दुखी भी हुई। क्योकि मैं सोहागिन होने पर भी जन्म की रांड़ थी। केवल व्याह के समय एक बार ज़रा सा अपने दूलह का मुख देखा था। जवानी के सारे चसके मन के मन ही में भर थे। सो ऐसे गहारे पानी में लग्गी डालने ले लहर उठी जान कर मैं बड़ी दुखी हुई। मन ही मन मैंने स्त्री के चोले को हज़ार बार धिक्कारा, मन ही मन अपने को भी कोटि २ धिक्कार दिया और मन ही मन मैं मरमिटी।

रसोईघर में लौट आकर मेरे मन में यों आया कि शायद मैं ने इन्हें पहिले कहीं देखा है। सो उस दुविधा के दूर करने की इच्छा से फिर मैं आड़ मे से उन्हें देखने लगी। खूब अच्छी तरह से देखा और देख कर मन ही मन कहा―

“चिन्ह लिया।”

इसा समय बाबू ने फिर और और सामग्री को ले जाने के लिये मुझे पुकारा। मैंने कई तरह के मांस पकाये थे, सो सब ले गई। मैंने देखा कि उन्होंने मेरे उस कटाक्ष को याद कर रक्खा