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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/७०

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इन्दिरा।

कहना तो मेरे हाथ हुई है। पर अभी ज़रा अट्ठ सट्ठ कह कर देखू कि क्या होता है। यही सब सोच विचार कर मैंने जवाब दिया―

“मेर घर ‘कालीदीघी’ है।

यह सुनतेही वे चिहुक उठे। और थोड़ी देश ठहर कर धीमे स्वर से बोले―‘कौन सी कालीदोघी? क्या ड़कैतों कालीदीघी?’

मैंने कहा―‘हां’।

फिर वे कुछ न बोले।

मैं मांस का बर्तन लिये खड़ी रही, और वहां पर खड़ी रहना मुझे उचित न था, यह बात भूल गई थी। अरे! अभी मैंने अपने को हज़ार बार धिक्कार दिया था, सो भी भूल गई। मैंने देखा कि मेरे जबाब सुनने के अनन्तर वे अच्छी तरह नहीं खाते थे। यह देख कर राम बाबू ने उनसे पूछा―

‘उपेन्द्र बाबू! भोजन करिये न’ बस इतना ही सुनना बाक़ी था। ‘उपेन्द्रबाबू’ इस नाम के सुनने के पहिले ही मैंने चीन्ह लिया था कि येही मेरे दूलह हैं।

मैं रसोई घर जाकर बर्तन दूर फेंक बहुत दिनों पीछे ज़रा खुशी मनाने बैठी। रामबाबछ ने पूछा कि, ‘क्या गिरा?’ क्योंकि मैंने मांस का बर्त्तन धम्म से पटक दिया था।

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