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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/८८

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इन्दिरा

यह कह कर उस निगोड़ी ने मेरे गले मे बाहें डाल मेरी ठुड़ी पकढध के मुँह ऊंचा कर के मेरे गालों को चूम लिया। उसकी आंख का एक बूंद आंसू मेरे गाल पर चू पड़ा।

अब मैंने भीतर ही भीतर अपने आंसू को पी कर कहा―“यह तो मानों संकल्प के पहिले ही दक्षिणा देदेना तुम सिखला रही हो।”

सुभाषिणी ने कहा―“जा, निगोड़ी! तब तुझे विद्या न आवेगी। अच्छा तू क्या जानती है? उस का एग्ज़ामिन दे? बस, समझ ले कि मैं ही तेरे ‘उ० बाबू’ हूं।” यों कह कर वह गद्दी के ऊपर कर डट कर बैठ के ढ़ली के न रुकने से अपने मुंह में कपड़ा ठूंसने लगी। फिर ज़रा हंसी के रुकने पर उस ने मेरी ओर घुर कर देखा और फिर हंसते हंसते लोटपोट हो गई। और हंसी के थम्हने पर बोली―“एग्ज़ामिन दे तो सही।” तब तो मेरा जिस विद्या का परिचय पाठक आगे पावेंगें, उसी का थोड़ा बहुत परिचय मैंने सुभाषिणी को दिया। जिस पर उस ने मुझे गद्दी पर से ढ़केल दिया और कहा―“दूर हो, पापिन! तू असल काली नागिन है।”

मैंने कहा―“क्यों भई?”

सुभाषिणी ने कहा―“अरे! ऐसी मुस्कुराहट और इशारे- बाज़ी में क्या पुरुष टिक सकते हैं? कभी नहीं, वरन् मर कर भूत होजाते हैं।”

मैं―तो मेरा एग्ज़ामिन (परीक्षा) पास हुआ न?