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न्याय से सम्बन्ध

निम्न लिखित बातें सब लोग अनुचित समझते हैं:---

( १ ) किसी के साथ विश्वास-घात करना।

( २ )किसी( Engagement ) को तोड़ना-चाहे स्पष्ट हो या अस्पष्ट।

( ३ ) अपनी बातों या अपने कामों से आशा बंधा कर निराश करना। कम से कम उस समय तो अवश्य ही जब हमने जान-बूझ कर तथा अपनी इच्छा से आशायें बंधाई हों। पूर्वोल्लिखित बातों के समान, जिनका करना न्याय की दृष्टि से हमारा कर्तव्य है, यह बात अनन्य-सम्बन्ध ( Absolute ) नहीं समझी जाती है। किन्तु न्याय की दृष्टि से हमारा यह कर्तव्य भी हो सकता है कि हम इस बात की अवहेलना करें। अथवा वह मनुष्य जो हम से लाभ पाने की आशा कर रहा है, कोई ऐसा काम कर बैठे कि जिससे फिर हमारा यह कर्तव्य नहीं रहे कि हम उसे लाभ पहुंचावें।

( ४ ) इस बात को भी सब मानते हैं कि पक्ष-पात करना न्याय या इन्साफ़ के विरुद्ध है। ऐसी बातों में, जहां पक्षपात ठीक नहीं है, किसी मनुष्य को दूसरे मनुष्य पर अकारण तरजीह देना अन्याय या बेइन्साफ़ी समझा जाता है। किन्तु ऐसा मालूम पड़ता है कि पक्षपात-रहित होना इस कारण उचित नहीं समझा जाता है क्योंकि पक्षपात रहित होना ही कर्तव्य है। पक्षपात रहित होने से हम किसी दूसरे कर्तव्य को पूरा करते हैं। इस ही कारण पक्षपात-रहित होना कर्तव्य माना जाता है क्योंकि यह बात मानी हुई है कि विशेष कृपा ( Favour ) या तरजीह सदैव निन्दनीय नहीं है। वास्तव में वे दशायें जहां पर विशेष कृपा तथा तरजीह निन्दीय है