पृष्ठ:उपयोगितावाद.djvu/११

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सिद्धान्त की सनद क्या है? हम इस सिद्धान्त के मानने के लिये क्यों विवश हों? किसी की हत्या न करने, या किसी का माल न लूटने तथा विश्वास-घात न करने या धोखा न देने के लिये तो हम बाधित हैं किंतु सार्वजनिक प्रसन्नता या दुःख बढ़ाने के लिये हम क्यों बाधित हों? उपयोगितावाद के तीसरे अध्याय में मिल ने इस प्रश्न पर विचार किया है और उपयोगितावाद के सिद्धान्त की सनद पेश की है।

संसार में दो प्रकार के मनुष्य देखे जाते हैं। एक तो वे जो ईश्वर की नेकी में विश्वास रखते हैं और उस की नाराज़ी से डरते हैं दूसरे वे मनुष्य कि जिन का ईश्वर में विश्वास नहीं है, और जो सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करना ही अपना लक्ष्य समझते हैं।

जिस मनुष्य का ईश्वर की नेकी में विश्वास है उस मनुष्य को इस बात में भी विश्वास करना होगा कि कर्त्तव्य ऐसा काम होना चाहिये जिस को ईश्वर पसन्द करता है। इस कारण ईश्वर की ओर से पुरस्कार की आशा तथा दण्ड का भय उसको इस सिद्धान्त––अर्थात् सार्वजनिक सुख के सिद्धान्त––के अनुसार कार्य करने के लिये विवश करेंगे।

अब रहे वे मनुष्य जिन का लक्ष्य केवल सुख की प्राप्ति है। ऐसे मनुष्य स्वयं चाहे कैसे ही काम क्यों न करते हों, किंतु वे यही चाहते हैं कि दूसरे उन के साथ ऐसा व्यवहार करें जिससे उनके विचारानुसार उनके सुख की वृद्धि होती हो। दूसरों के ऐसे ही कामों की वे प्रशंसा करते हैं। इस कारण अपने भाईयों की ओर से पुरस्कार की आशा तथा दण्ड का भय तथा दूसरों के प्रति निस्स्वार्थ प्रेम तथा सहानुभूति के