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न्याय से सम्बन्ध

अर्थात इन्साफ और आचारनीति की अन्य शाखाओं का भेद मालूम करना है। आचारशास्त्र के लेखकों ने नैतिक कर्तव्यों के दो भेद किये हैं। एक तो वे कर्तव्य होते हैं जिन को करना यद्यपि आवश्यक है, किन्तु जिन को करने के अवसर हमारी इच्छा पर छोड़ दिये जाते हैं, जैसे दान या उपकार के काम। दान देना तथा उपकार करना हमारा धर्म है किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि किसी विशेष मनुष्य ही को दान दें या उसका उपकार करें तथा किसी निर्धारित समय पर ही ऐसा करें। इस प्रकार के कर्तव्य अपूर्ण कर्तव्य कहे जाते हैं दूसरे वे कर्तव्य होते हैं जिन का पालन करना सदैव आवश्यक होता है। इस प्रकार के कर्तव्यों को पूर्ण कर्तव्य कहते हैं। अधिक नपी तुली दार्शनिक भाषा में हम इस प्रकार कह सकते हैं कि पूर्ण कर्तव्य वे होते हैं। जिन के साथ २ कोई मनुष्य या कतिपय मनुष्य अधिकार के पात्र हो जाते हैं। अपूर्ण कर्तव्य वे होते हैं जिनके कारण कोई अधिकार का पात्र नहीं होता। मेरे विचार में ठीक यही भेद न्याय अर्थात् इनसाफ़ तथा अन्य नैतिक कर्तव्यों में है। न्याय शब्द के भिन्न २ साधारण प्रयोगों के जो उदाहरण इस अध्याय के आरम्भ में दिये गये हैं उन सब उदाहरमों में साधारणतया व्यक्तिगत अधिकार या हक़ का भाव मौजूद है। चाहे अन्याय या बे इन्साफ़ी किसी का माल छीनने में हो, चाहे उसके साथ विश्वासघात करने में हो, या उसके साथ ऐसा बर्ताव करने में हो जिसका वह अधिकारी नहीं है, या उसके साथ उन मनुष्यों की अपेक्षा बुरा व्यवहार करने में हो जिन के दावे ( Claim ) उस से अधिक नहीं हैं; प्रत्येक दशा में न्याय की कल्पना में दो बातें मौजूद हैं--एक तो दूषित कार्य जो हुवा है और दूसरे वह मनुष्य जिस के साथ दुषित कार्य हुवा है। किसी