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पांचवां अध्याय

मुझे यह प्रतीत होता है कि किसी को हानि पहुंचाने वाले को दण्ड देने की इच्छा दो भावों से ख़ु बख़ुद पैदा होती है। ये दो भाव प्रात्म-रक्षा का आवेग तथा सहानुभूति की भावना हैं। ये दोनों भाव बिल्कुल प्राकृतिक हैं और या तो निसर्गः ( Instincts ) हैं या निसर्ग से मिलते जुलते हैं।

यह प्राकृतिक है कि यदि हम को या उन मनुष्यों को, जिन से हमें सहानुभूति है, हानि पहुँचाई जायगी तो हम को बुरा मालूम देगा या हम उस हानि को रोकने या उस हानि का बदला लेने की चेष्टा करेंगे। यहां पर इस प्रकार के भाव की उत्पत्ति के विषय में वाद-विवाद करने की आवश्यकता नहीं है। चाहे यह निसर्ग हो या मनीषा का परिणाम---हम सब जानते हैं कि ऐसा करना सब पशुओं की प्रकृति में है क्योंकि हम देखते हैं कि प्रत्येक जानवर उन को हानि पहुंचाने का प्रयत्न करता है जो उस को या उस के बच्चों को हानि पहुंचाते हैं या जिन को वह समझता है कि हानि पहुंचाने वाले हैं। यहां पर मनुष्यों तथा अन्य जानवरों में दो बातों का भेद है। पहिली बात तो यह है कि मनुष्यों में मनुष्य जाति तथा सब ज्ञान-ग्रहण-शील सृष्टि के प्रति सहानुभूति होना संभव है। अन्य जानवर अपने बच्चों के साथ ही सहानुभूति रखते हैं। कुछ उच्च श्रेणी के जानवर ( Noble ) ऐसे बड़े जानवर के साथ भी सहानुभूति रखते हैं जो उन पर मेहरबान होता है। दूसरी बात यह है कि मनुष्यों की बुद्धि अधिक विकसित होती है। इस कारण भावों का, चाहे आत्म-सम्बन्धी हो चाहे सहानुभूति विषयक-दायरा अधिक बड़ा होता है। सहानुभूति का दायरा बड़ा होने के विचार को छोड़कर भी मनुष्य अपनी अधिक