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उपयोगितावाद

या ग़लत बता देती है। पहिले तो ऐसी नैसर्गिक बुद्धि का अस्तित्व ही विवादात्मक विषय है। इसके अतिरिक्त इस सिद्धान्त के वे पोषक, जो तत्त्वज्ञानी होने का भी दावा करते हैं, इस विचार को छोड़ देने के लिये विवश हुवे हैं कि नैसर्गिक बुद्धि किसी काम के ठीक या ग़लत होने को इसी प्रकार बता सकती है जैसे कि हमारी अन्य इन्द्रियां सामने की चीज़ को या आवाज़ को। उन सब पोषकों के अनुसार, जो विचारक कहे जाने के भी अधिकारी हैं, हमारी नैसर्गिक बुद्धि आचार संबन्धी निर्णय के सामान्य सिद्धान्त बताती है। यह हमारे हेतु की शाखा है, सचेतन शक्ति (Sensitive faculty) की नहीं। यह शक्ति आचार विषयक अमूर्त सिद्धान्तों को मालूम करने में सहायता दे सकती है, किन्तु उन सिद्धान्तों के अनुसार किसी काम के ठीक या ग़लत होने में नहीं। आचार शास्त्र में प्रत्यक्ष ज्ञान तथा परीक्षावाद के माननेवाले सामान्य नियमों की आवश्यकता पर जोर देते हैं। ये दोनों इस बात पर सहमत हैं कि केवल ऊपर से देखकर ही किसी काम को ठीक या गलत नहीं कहना चाहिये, प्रत्युत् किसी नियम के अनुसार उस कार्य विशेष के ठीक या ग़लत होने का निर्णय करना चाहिये। बहुत कुछ हद तक दोनों एक प्रकार के नैतिक नियम मानते हैं, किन्तु उन नियमों के पुष्टीकरण में भेद है। एक स्कूल के अनुसार तो आचार शास्त्र के सिद्धान्त स्वतः सिद्ध हैं। उनको मनवाने के लिये किसी प्रकार का प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है। केवल उन का अर्थ समझ लेना ही पर्याप्त है। दूसरे स्कूल के अनुसार ठीक और ग़लत तथा सत्य और असत्य निरीक्षा तथा अनुभव के प्रश्न हैं। किन्तु इस बात पर दोनों सहमत हैं कि आचार शास्त्र की