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दूसरा अध्याय

स्वरूप को समझनें तो फिर मैं नहीं समझता कि अन्य आधार पर स्थित आचार शास्त्र की कौनसी खूबी उन्हें उपयोगितात्मक आचार शास्त्र में नहीं मिलेगी। अन्य आचार प्रणाली ( Ethical system ) ही मनुष्य-प्रकृति को इससे अधिक और क्या उच्च तथा उदार बना सकती है?

उपयोगितावाद के विरोधियों पर सदैव ही यह इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता कि वे इस सिद्धान्त को बुरे स्वरूप में पेश करते हैं। जिन लोगों ने इस सिद्धान्त की उच्चता को कुछ २ ठीक तरह समझा है वे यह आक्षेप करते हैं कि इस सिद्धान्त का आदर्श जन साधारण के लिये बहुत उच्च है। उनका कहना है कि मनुष्यों से इस बात की आशा नहीं की जा सकती कि वे सदैव जो कुछ करेंगे जनसाधारण के हित को दृष्टि में रखते हुवे करेंगे। किन्तु ऐसा आक्षेप करना आचार के आदर्श के अर्थ ही न समझना है। ऐसा आक्षेप करने वाले कार्य करने के नियम को उसके उद्देश्य के नियम से मिला देते हैं। आचार शास्त्र का उद्देश्य है कि वह हमें बताये कि हमारा क्या धर्म या क्या फ़रायज़ हैं तथा इस बात को जानने की क्या कसौटी है। किन्तु आचार शास्त्र का कोई क्रम यह नहीं कहता कि जो कुछ भी हम करेंगे उसका एक मात्र प्रयोजन ( Motive ) धर्म या फ़र्ज़ ( Duty ) की भावना ही होगी। इसके विपरीत हम सौ में से निन्यानवे अन्य और प्रयोजनों से करते हैं और ये सब काम, यदि प्रयोजन के नियम के अनुसार दूषित नहीं हैं, तो ठीक हैं। इस प्रकार ठीक अर्थ न समझ कर उपयोगितावादियों पर आक्षेप करना तो और भी अधिक अनुचित है क्योंकि उपयोगितावादियों ने अन्य आचार-शास्त्रियों की अपेक्षा इस बात