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चौथा अध्याय


वरन सुख के अतिरिक्त वे कभी किसी और वस्तु की कामना नहीं करते। अब यह बात स्पष्ट है कि मनुष्य बहुतसी ऐसी चीज़ों की कामना करते हैं जो साधारण भाषा में सुख से भिन्न हैं। उदाहरणत: मनुष्य ठीक उसी प्रकार पुण्य या नेकी (Virtue) की कामना करते हैं तथा बदी से बचना चाहते हैं जिस प्रकारसुख की कामना करते हैं तथा दुःख से बचना चाहते हैं। पुण्य की कामना सुख की कामना के समान सार्वलौकिक नहीं है, किन्तु सुख की कामना के समान ही पुण्य की कामना का होना भी निर्विवाद है। इस कारण उपयोगितात्मक आदर्श के विरोधी कहते हैं कि हमको यह परिणाम निकालने का अधिकार है कि सुख के अतिरिक्त मानुषिक कार्यों के और भी उद्देश्य होते हैं और इस कारण उपयोगिता की कसौटी से ही किसी काम को करने या न करने के योग्य नहीं ठहराया जा सकता।

किन्तु क्या उपयोगिता का सिद्धान्त कहता है कि मनुष्य पुण्य की कामना नहीं करते? बिल्कुल इससे उल्टी बात है। उपयोगितावाद का कहना है कि पुण्य की कामना ही नहीं करनी चाहिये वग्न् निष्काम होकर पुण्य की कामना करनी चाहिये। उपयोगितावादी आचार-शास्त्रियों की इस विषय में, कि कोई पुण्य कार्य प्रारम्भ में किस प्रकार पुण्य का कार्य बन गया, कोई सम्मति क्यों न हो तथा चाहे उनका कैसा ही यह विश्वास हो (जैसा कि है भी) कि कोई कार्य या मनोवृत्ति इस ही कारण धार्मिक है क्योंकि उससे पुण्य या नेकी (Virtue) के अतिरिक्त किसी और उद्देश्य की पूर्ति में सहायता मिलती है, किन्तु इस प्रकार किसी कार्य के धार्मिक या अधार्मिक होने का निर्णय कर लेने पर उपयोगितावादी नेकी