इस बात को और अधिक अच्छी तरह समझने के लिये हमको यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि केवल नेकी या पुण्य ही प्रारम्भ में उद्देश्य का साधन होने पर बाद में उद्देश्य का भाग नहीं बन गये हैं। उदाहरण के लिये धन की लालसा ही को ले लीजिये। धन का यही मूल्य है कि उसके द्वारा और चीजें खरीदी जासकती हैं। इस कारण प्रारम्भ में धन की इच्छा उन वस्तुओं की इच्छा के कारण होती हैं जो उस धन द्वारा प्राप्त हो सकती हैं। इस कारण धन हमारी इच्छा-पूर्ति का एक साधन है। किन्तु धन की लालसा केवल उन बातों के अन्तर्गत ही नहीं है जिनका मानुषिक जीवन में बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, वरन् बहुतसी दशाओं में धनी होनेके एकमात्र विचार से ही बहुत से मनुष्य घन की भावना करते हैं। धन का प्रयोग करने की अपेक्षा धन का स्वामी बनने की कामना अधिक बलवती होती है। इस कारण यह कहना गलत नहीं है कि धन की कामना इस कारण नहीं की जाती कि धन किसी उद्देश्यप्राप्ति का साधन है वरन् धन की कामना इस कारण की जाती है कि धन हमारे उद्देश्य का एक भाग है। आरम्भ में धन सुख का एक साधन था, किन्तु अब मनुष्य धन को सुख का एक मुख्य अवयव समझने लगा है। यही बात मनुष्यों के और बहुत से इष्ट पदार्थों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है, उदाहरणतया शक्ति या शोहरत। शक्ति या शोहरत में एक विशेषता है जो धन में नहीं है। वह विशेषता यह है कि शक्ति मिलने या शोहरत पाने के साथ ही साथ हमको तत्क्षण कुछ आनन्द सा प्रतीत होने लगता है। इससे कम से कम ऐसा मालूम अवश्य होता है कि शक्ति तथा शोहरत में आनन्द है।
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तीसरा अध्याय