पृष्ठ:उपहार.djvu/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१०८

- वहीं, अन्यथा किसी होटल में मेरा प्रतिदिन का भोजन होता। प्रायः बहुत से दिन, तो चा के एक दो प्यालों पर ही वीत जाया करते । तात्पर्य यह कि मेरा स्नान, भोजन, सोना, जागना, सभी कुछ अनियमित था। नियमित रहता भी तो फैसे ? मैं अपनी इस उठती जवानी में ही बुढ़ापे का अनुमय कर रहा था; जीवन मुझे भार सा प्रतीत होता, न किसी प्रकार की इच्छा शेष थी न श्राफांक्षा न उत्साह था और न उमंग; जीवन को किसी प्रकार ढकेले लिए जाता था। में स्वभाव से ही अध्ययनशील, विद्यानुरागी, स्वभिमानी, भावुक और अल्पभापी था। मैं अपने कुछ इने गिने मित्रों को छोड़ और अन्य लोगों से बहुत कम मिलता जुलता था । प्राय अपना अधिकांश समय अध्ययन में ही चिताया करता था। मेरी लायब्रेरी में संसार के प्रायः सभी विद्वान लेखकों की कृतियां श्रालमारियों में सजी थीं। उन्हें में अनेकों बार पढ़ कर भी फिर से पढ़ने का इच्छुक था। प्रायः लायब्रेरी में जव में पुस्तकों का अध्ययन करता होता और उनमें किसी सुशिक्षिता महिला के विषय में कोई प्रसंग श्रा जाता, तो कल्पना के उच्चतम शिखर से ही मैं भी अपनी जीवन-संगिनी का दर्शन करता; और वहां से मैं देखता मेरी प्रेयसी पढ़ने में, लिखने में, सामाजिक और सांसारिक प्रत्येक कार्यों में मेरी वैसी ही सहायक है जैसे पुस्तक लेखक की स्त्री, जिसका दर्शन में अभी पुस्तक के पृष्ठों पर कर चुका हूं। यही कारण था कि विवाह के बाद मुझे इतनी अधिक निराशा हुई। मैं कल्पना के जिस शिखर पर विचरण कर रहा था, यहां से एकदम नीचे गिर पड़ा।