१२१ श्राए हुए कई दिन के 'लीडर' पडे थे जिनसे विरजो को विशेष प्रेम न था, अतएव यह खोले भी न गये थे। मैंने तारीख बार उन्हें देखना शुरू किया। मुझे पढते देख प्रजागना फिर कुछ न बोली। यह मेर स्वभाव स भली भाति परिचित थो श्रतएव पढने लिखने के समय वह मुझ से कभी किसी प्रकार की यात चीत न करती थी कुछ देर बाद मेरी तन्द्रा सी हदो। घडी पर नजर पडते ही देखा कि काफी रात बीत चुकी है। में तो केवल ५ मिनट के लिये प्राया था। ' घजागना सो चुकी थी। काले कालीन पर उसका मुह पृथ्वी पर एक दूसरा पूर्णिमा का चाद सा दिख रहा था। उसे में क्षण भर तक देखता रहा । मेरा विवेक, मेरा ज्ञान, मेरी बुद्धि जाने कहा अन्तहित होगई। मैं अपने प्रापे मन रहगया। x x श्राज उसकी स्मृति ही सौ सौ विच्छुओं के दशन से मी अधिक पीडा पहुंचा रही है किन्तु उस समय तो में शायद बेहोश था। मुझे तो होश उस समय श्राया जय मैंने व्रज्ञागना को फूट फूट कर रोते देखा। मुझे याद है उसके यही शब्द थे "तुमने तो मुझे कहीं का न रक्खा योगेश!" सचमुच मेंने घोरतर पाप किया था जिसका प्रायश्चित्त कदा- चित हो ही नहीं सकता था ! मुझसे अधिक पापात्मा संसार में भला कौन हो सकता था ? मेंथा विश्वासघाती, नीच और परस्त्री-गामी । अपना कालिमा से पुता हुभा मुंह फिर में प्रजागना को न दिखा सका। चुपचाप उठा और उठ कर सोदियों से नीचे उतर कर अपने घर पाया। उस दिन मैं फिर रात भर सो भी न सका । अपने दुष्कृत्य पर मैं कितना
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