१२३ गाफिल है। संझा को अच्छी भली सोई थी और अब तो भगवान जो उठाके खडी करे तो खडी हो। नहीं तो कुछ प्राशा नहीं दिखती। मुझे चक्कर-सा आने लगा। भीखू के साथ उसी समय नवल के घर की ओर चला; रात जिस घर में फिर कभी न जाने को प्रतिना करके निकला था उसी घर की ओर फिर विक्षिप्तों की तरह चल पडा। श्राह ! किन्तु वहां तो मेरे पहुँचने के पहले ही सब कुछ समाप्त हो चुका था नवलकिशोर यञ्चों की तरह फूट फूट कर रो रहे थे। X x उसका कचनसा शरीर चिता पर धर दिया गया। आग लगा दी गई और वह धूधूकरके जल उठी। हमारे देखते ही देखते उसका सोने का शरीर राख में मिल गया। इसी प्रकार मुझे भी जीता ही जला देना चाहिये । इस हरी भरी छोटी सी गृहस्थी को वीहड बनाने वाला नर-पिशाच तो में ही हूँ न में किस भाग में जल रहा था इसे मेरे सिवा और कौन समझ सकता था? सब लोगों के चले जाने के बाद बची खुची राख को समेट कर उसी समय मैंने वह नगर छोड दिया उसी राष को यहां रख कर मैंने उसकी समाधि बनाली है और न जाने कितनी चैती पूर्णिमा उस समाधि को पश्चात्ताप के आसुओं से धोते हुए मेने पिता दी है। किन्तु पश्चात्ताप अभी तक पूरा नहीं हुआ। मैं रात दिन जलता हूँ। एक सुन्दर से फूल को धूल में मिलाने का पाप मेरे सिर पर सवार ह।
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