आपको, न जाने कितना, धिक्कारा।"पेसी नोंद भी भला किस काम की ? वे श्राए और भूखे प्यासे सो रहे और यह निगोड़ी श्रांखें न खुली ! यह सदा के लिए तो यन्द न हुई थीं न? कभी न कभी खुलने के ही लिये तो मुदी थीं? फिर खुलने के समय पर क्यों न खुलीं?" इसी प्रकार अनेक विचार उसके मस्तिष्क में ग्रा-श्राकर उसे विकल करने लगे। छाया फिर सोन सकी। बाकी रात उसने करवट बदलते ही विताई। सवेरे उठकर उसने प्रमोद का कोट टटोला । उसकी जंजीर ज्यों को त्यों पड़ी थी । दूसरे जेब में २५) रुपये भी थे जंजीर येची भी नहीं, गिरवी नहीं रसी, फिर यह रुपये कहां से आए ? प्रयत्न करने पर भी छाया इस उलझन को न सुलझा सको । सवेरे जब प्रमोद सोकर उठे तव उनका चेहरा और दिनों की अपेक्षा अधिक प्रसन्न था। उदने पर उन्होंने छाया से पिता की मुलाकात, अपने घर जाने की यात और यहां के सब लोगों के व्यवहार और वर्ताय सभी बतलाए । छाया सुन कर प्रसन्न हुई; किन्तु उस घर में छाया भी प्रवेश कर सकेगी या नहीं? न तो इसके विपय में प्रमोद ने ही कुछ कहा और न छाया को ही पूटने का साहस हुआ । अब प्रमोद की दिनचर्या यदल गई थी । यह सवेरे से उठते ही अपनी मा के पास चले जाते। यहीं हाथ मुंहधोते. वहीं दूध पीते, फिर अखबार पढते पढ़ाते मित्रों से मिलते जुलते। यह करीव ११-१२ बजे घर लौटने । इस समय उन्हें घर पाना ही पडता; क्योंकि छाया उन्हें भोजन कराये विना साना न खाती थी। छायां को श्रव प्रमोद के सहवास का श्रमाय बहुत खटकता था। किन्तु यह प्रमोद से कुछ कह न सफती थी। यह कुछ ऐसा अनुभव करती थी कि जैसे
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