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पृष्ठ:उपहार.djvu/४८

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विवाह की भीड़ भाड़ में, न जाने कितने मित्र और रिश्तेदारों को जमघट में, मेरी उत्सुक आंखे सदा कुन्दन को खोजती रहती किन्तु इन तीन चार दिनों में वह मुझे एक दिन भी न दिखा। विदा के दिन तो मेरे धैर्य का बांध टूट गया । कुन्दन की बहिन से मैंने पूछा, मालूम हुआ कि वह कई दिनों से बीमार है। अब क्या करती, हृदय में एक पीड़ा सिए मैं विदा हुई। स्टेशन पर पहुंची। व्याकुलता असम्भवता को भी सम्भव बनाने की उधेड वुन में रहती है। में जानती थी कि बीमार कुन्दन स्टेशन नहीं आ सकता फिर भी था चारों तरफ किसी को खोज रही थीं।

इधर ट्रेनने चलने की सीटी दी, उधर गेट की तरफ से कोई तेजी से आता हुआ दिखा । आंखों ने कहा कुन्दन है। हदय ने समर्थन किया, किन्तु मस्तिष्क ने विरोध किया। भला वह बीमार स्टेशन पर कैसे आएगा! पर यह मेरा कुन्दन ही था। उसकी भाषा में निराशा-जनक उन्माद, चेहरे पर विवाद की गहरी दाया और ओठों पर वही स्वाभाविक मुस्कुराहट थी। सिर के विखरे हुए रूखे बालों ने पूरा माथा ढ़क रखा था । मैं चिल्ला उठी, “कुन्दन, इतनी देरबाद !" पास ही बैठी हुई नाइन ने मेरा मुंह बन्द कर दिया, बोली "चिल्लाओ न बेटी, बराती सुनेंगे तो क्या कहेंगे!" अब मुझे होश आया कि मै कहीं जारही हूं, अपने कुन्दन से दूर बहुत दूर । कटे वृक्ष की तरह में वेच पर गिर पड़ी। हृदय जैसे डूबने लगा। ट्रेन चल पड़ी। जब मनुष्य के प्रति मनुष्य ही की सहानुभूति कम देखने में आती है तब भला इस जड़ पदार्थ रेलगाड़ी को ही मुझसे क्या सहानुभूति हो सकती थी ! उसने मुझे कुन्दन