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से प्यार करता था। वसंत का स्वभाव और चरित्र अत्यंत उज्ज्वल और ऊंचा था, फिर भी जब वह सोचता कि कुसुम के विवाह के समय, उसके सुख के समय उसकी आँखों में आंसू आये थे और कुसुम के विधवा होने पर उसके हृदय में आशा का संचार हुआ है, तब वह अपने विचारों पर स्वयं लज्जित होता और अपने को नीच समझ कर धिक्कारता।

वसंत बहुत दिनों तक मसूरी में न रह सका, देहरादून एक्सप्रेस से वह एक दिन इलाहाबाद जा पहुँचा। कुसुम के सदुव्यवहार से उसे कुछ शान्ति मिली। कई दिनों से वसंत कुसुम से कुछ कहना चाहता था; किन्तु कहते समय उसे ऐसा मालूम होता जैसे कोई आकर उसको ज़बान पकड़ लेता हो -- वह कुछ न कह सकता था। एक दिन बगीचे में कुसुम वसंत के साथ टहल रही थी, दोनों ही चुप चाप थे, वसंत ने निस्तब्धता भंग की, उसने पूछा-- "कुसुम! क्या तुम अपना सारा जीवन इसी प्रकार, तपस्विनी को तह वितादोगी?"

"क्या करूँ, ईश्वर की ऐसी ही इच्छा है" कुसुम ने शांति से उत्तर दिया। "किन्तु इस तपश्चर्या को सुख में परिवर्तित करने का क्या कोई मार्ग नहीं है?" वसंत ने पूछा।

"क्या मार्ग हो सकता है वसंत तुम्हीं कहो न? मेरी समझ में तो नहीं आता?"

वसंत ने धड़कते हुए हृदय से कहा--"पुनर्विवाह जैसा कि तुम्हारी सखी मालती ने भी किया है।"

कुसुम को एक धक्का सा लगा। उसका चेहरा लाल हो गया। उसने दृढ़ता से कहा--"लेकिन वसंत बाबू मुझसे तो यह कभी न हो सकेगा।"