पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३९३

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चतुर्थ सर्ग युग-युग की ७१ आँसू प्रणोदनामय प्रॉसू है प्रेरक कृति के, आँसू आधार बने निराधार ससृति के, रति-प्रेरक, मति-गति-प्रेरक, सगीत-प्रणोदक ऑसू, आँसू-ध्वन्योत्पादक ये, ये प्रीति-प्रमोदक आसू, प्रतिबिम्बत करते बहते व्यथा पुरानी, छल-छल कर कहते रहते, वेदना-कहानी। ७२ करुणा ने विगलित करके, अन्तर के अटल उपल को, प्रकटाया प्रीति-व्यथा अति विरहित तरल सुफल को, लोचन-खिडकियाँ उघाडे आते है ललक-ललक ये, हिय-भवन रिक्त-सा करते जाते है ढलक-ढलक ये भीगा वक्षस्थल, भीगे- ये लोल-कपोल, पलक ये, झर गिरे श्वास आकर्षित, जीवन-तरु के अमलक ये ।