पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५६०

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ऊम्मिला इन शब्दो म जड निश्चितता भरी हुई है, खेद यही, इन भावो मे नेति-नेति का अथकित सुमथित स्वेद नही, जीवन में इति-निश्चितता का अन्य नाम है आत्म-विनाश, नेति-भाव म श्रम है, है नित आत्म-विकास, असद्भाव है व्यक्त अत वह हो जाता है अनुकरणीय, यो विचार कर श्री रावण ने समझा असद्भाव वरणीय । अन्वेषण है, राम अबोध नहीं है, वह भी-- पाप-स्थिति से परिचित है, पड्पुिनो की दाहक-मोहक माया किसको अविदित है, जग-जन-गण के अन्तस्तल मे, दुप्प्रवृत्तियाँ सचित पर कुछ ऐसे भी है जो इन 'दुर्भावो वचित इसीलिए यह ध्रुव प्राशा है--- कि यह जगत हैं सत्य-स्वरूप, सतत यत्ल से पा सकता है यह जग अपना रूप अन्प । स ५४६