[च]
एक बार जिसको वरा, है वह ही भरतार।
झिंझरी नैया का वही, पति है बस पतवार॥
अत्याचारी पिता का भय उसको अपने प्रण से नहीं हटा सकता। वह क्षत्रिय बालिका है और किसी स्थान पर अपने क्षात्र धर्म से नहीं गिरती है, यहां तक कि पिता की खड्ग के सामने अपने पति को बचाने के निमित्त वह स्वयम् अपना शिर रख देती है।
चित्रलेखा वाणासुर के मन्त्री की पुत्री और ऊषा की सब से प्रिय सखी है। उसका चरित्र नाटक में सबसे अनोखा है। वह उड़ना जानती है, स्वप्न का अर्थ बतला सकती है और चित्र भी खींच सकती है। इससे विदित होता है कि प्राचीन समय में नारियां अनेकों कलायें जानती थीं और शास्त्र प्रवीणा होती थीं। उस समय मूर्खता का होना स्त्रियों का आभूषण न समझा जाता था और न उनकी पूजा केवल वाह्य सौन्दर्य और वस्त्रशृंगार के कारण होती थी। अपनी सखी ऊषा के हित साधनार्थ वह प्रत्येक कष्ट सहने को तैयार है। वह आकाश मार्ग से जाती, अपने को भयानक स्थिति में डालती अनिरुद्ध के राजभवन में बेधड़क घुस जाती और अनिरुद्ध को पलंग समेत ले आती है। ऊषा और अनिरुद्ध की प्रथम भेंट कराने में उसने जिस कौशल से काम लिया है वह उसी का अंश है। वह बात चीत करने में और विशेष कर हास्य रस में दक्ष है।
हमारी राय में नाटक का मुख्य पात्र अनिरुद्ध नहीं बल्कि वाणासुर है। वाणासुर एक अत्याचारी राजा है। वह शैव है और वैष्णवों को भरपूर दुःख देता है। शिवजी के प्रसाद से उसे अजेय शक्ति और पर्वती जी के प्रसाद से एक कन्यारत्न प्राप्त होता है। कन्या के जन्म पर राजा ऐसा ही प्रसन्न होता है जैसा कोई पुरुष पुत्रोत्पत्ति से होता है। कन्या के पैत्रिक प्रेम और भक्ति के विषय में वाणासुर ने जिन भावों को प्रकट किया है वे आजकल उन हिन्दू गृहस्थों के विचार करने योग्य हैं जो कन्या जन्म पर शोक करते और उसके आगम को सृष्टि की ओर से दुर्भाग्य का चिन्ह समझते हैं।